त्रिपिंडी श्राध्द एक काम्य श्राध्द है। यदि लगातार तीन साल पितरोंका श्राध्द न होनेसे पितरोंको प्रेतत्व आता है। वह दूर करनेके लिए यह श्राध्द करना चाहिए। मानव का एक मास पितरोंका एक दिन होता है। आमावस पितरोंकी तिथी है। इस दिन दर्शश्राध्द होता है। अतृप्त पितर प्रेतरुपसे पीडा देते है। और भी पितृकर्म का लोप श्राध्द कर्म, औध्व्देहिक क्रिया सशास्त्र न होनेसे भूत, प्रेत, यक्ष, गंधर्व, शाकिणी, रेवती, जंभूक आदिओं की पीडा उत्पन्न होकर धर्म घरमें अशांतता निर्माण होती है। और भी एक दिन, तीन दिन, पंद्रह दिन के अंतरसे जूडी आती है। विवाह तय नही होता। व्यवसायोंमें असफलता आती है। समृध्दि दिन ब दिन ढलती जाती है। इस लिये त्रिपिंडी श्राध्द करना चाहिए। इसका विधान श्राद्ध चितांमणी इस ग्रंथमे बताया है।
कार्तिके श्रावण मासे मार्गशीर्ष तथैवच।
माघ फाल्गुन वैशाखे शुक्ले कृष्ण तथैवच।
चर्तुदश्या विशेष्ण षण्मासा: कालउच्यते।
अन्यच्च कार्तिकादि चर्तुमासेषु कारयेत्।।
तथापि दोष बाहुल्ये सति न कालापेक्षा।।
इस विधी को श्रावण, कार्तिक, मार्गशिर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन और वैशाख मुख्य मास है ५, ८, ११, १३, १४, ३० में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की तिथीयाँ और रविवार दिन बताया गया है। किंन्तु तीव्रवार पिडा यदि हो रही है तो तत्काल त्रिपिडी श्राध्द करना उचित है। इसके लिए गोदायात्रा विवेका-दर्शा में प्रमाण दिया है।
अवर्णनियो महिमा त्रिपिंडी श्राद्व-कर्मण।
अत: सर्वेषु कालेषु त्र्यंबकेंतु विशिष्यते।।
उपरके वचनानुसार त्रिपिंडी विधी त्र्यंबकेश्वरमें कभी भी कर सकते है।इस कर्म के पिंड प्रदान में येकेचितप्रेतरूपेण पीडयंते च महेश्वर ऐसा वचन आया है। रघुवंश महाकाव्य में कालिदासने महेश्वर, (त्र्यंबक) एवं नापर : कहा है। अत: महेश्वर संज्ञा त्र्यंबकेश्वरके लिये ही है। महेश्वर (त्र्यंबक) जो कोई हमे प्रेतरूप में दुर्धर पडा दे रहे हो उन सभी को नष्ट कर दे 'ऐसी मेरी प्रार्थना है। प्रेतरूपी के पितर रवि जब कन्या और तुल राशी मे आता है तब पृथ्वीपर वास करते है। श्राद्ध के लिए यह काल भी योग्य है, महत्व का है। यह कामश्राद्ध होनेसे पिडा दूर होती। अत: नवरात्रमे यह कामश्राद्ध न करे। वैसेही त्रिपिंडी श्राद्ध और तीर्थश्राद्ध एकही दिन न करके अलग अलग करे। और यदि समय न हो तो प्रथमत: त्रिपिंडी कर्म पुरा करके बाद तीर्थश्राद्ध करे।
प्रेताय सदगति दत्वा पार्वणादि समाचरेत्।
पिशाच्चमोचनेतीर्थ कुशावर्ते विशेषत।।
यह कर्म पिशाच्चविमोचन तीर्थ अथवा कुशावर्त तीर्थपर करे। इस विधी मे ब्रम्हा, विष्णु, रुद्र (महेश) प्रमुख देवता है। ये द्विविस्थ, अंतरिक्षस्थ, भूमिस्थ और वृद्ध अवस्था के अनादिष्ट प्रेतों को सदगति देते है। अत: विधिवत एकोद्दिष्ट विधिसे त्रिपिंडी श्राद्ध करे। इस विधी के पूर्व गंगाभेट शरीर शुध्यर्थ प्रायश्चित्तादि कर्म करे। यहा क्षौर करने की जरूरत नही। किंन्तु प्रायश्चित अंगभूत क्षौर के लिए आता है। त्रिपिंडी विधी सपत्निक नूतन वस्त्र पहनकर करे। यह विधी जो अविवाहीत है अथवा जिसकी पत्नी जीवित नही है वो कर सकता है। इसमें देवता ब्रम्हा (रौप्य), विष्णु (सुवर्ण), रुद्र (ताम्र) धातू की होती है।